शुक्रवार, 6 नवंबर 2009

wo ik shaam

वो इक शाम इस ज़हन से उतरती ही नहीं, झूमती गाती फिजा थिरकती हुई आयी.
हुस्न चमका, अदा चमकी, धड़कने दिल की बढ़ी.... पैरों में थिरकन आयी.
या खुदा ... प्यास ये कैसी जगाई है तूने, रक्स फिर हुस्न-ए-परी का दिखा दे.
फिर वो महफिल सजे, फिर रक्स हो, फिर झूमे ये दिल. अब तो ऐसा कोई मौका बना दे.

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